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Wednesday, July 13, 2011

धर्मं मंदिर नहीं , ज़रूरत है कर्म मंदिरों की!!!

A ruined Jain Temple of Great Historical Importance

बीते सालो में मंदिरों के बेतहाशा निर्माण हुएं | कही से लाखो करोड़ का धन निकला तो कुछ के स्वामी संत एवं प्रभावशाली व्यक्ति धनवान निकले| छोटे छोटे गाँव में जहाँ की जनसंख्याँ दो-तीन हज़ार या इस से भी कम है वहा हर वर्ष एक नया मंदिर निर्मित हो जाता है| यद्यपि, इस तथ्य में कोई संदेह नहीं है कि हम भारत वासियों की धार्मिक भावना/प्रतिबद्धता की मिसाले विश्व में कही और नहीं मिलती, तथापि जब यह प्रतिबद्धता, धर्मान्धता में तब्दील हो जाएँ तो यह मसला अवश्य ही विचारणीय हैं! गौरतलब है कि जब-जब नए मंदिर बनाये जाते है,जिनकी लागत १०-२० करोड़ से कम नहीं होती हें, तो मूर्ति स्थापना, सामूहिक भोज, यज्ञ अनुष्ठान आदि संपूर्ण आयोजन पर हजारो रूपये मुक्त-हस्त लुटाये जाते है(ज़ाहिर है, यह खर्चा मंदिर निर्माण के लागत के अलावा होता है) जबकि उसी स्थान पर पुराने मंदिरों कि दुर्दशा पर रोने वाला तक नहीं मिलता| वे कुटेवो के अड्डे बन चुके होते है. मूर्ति का स्नान, सफाई एवं पूजा अर्चना जैसे नियमित कर्म नहीं हो पाते है. जबकि इनमे से अधिकांशतह मंदिर इतिहास, कलात्मकता एवं पौराणिकता कि दृष्टी से बेजोड़ होते है. ऐसे में, और अधिक मदिरो का निर्माण इसलिए किया जाए कि कुछ बरस बाद मंदिरों के भगवान् को "भगवान्" के हवाले ही छोड़ना पड़े? इससे बेहतर यही हो कि पुराने मंदिरों का जीर्णोद्धार कर उसे व्यवस्थित किया जाए या फिर सबसे उत्तम कि नए मंदिर कि राशी में गाँव कि सड़के, गरीब छात्रो के लिए आश्रय, यात्री प्रतीक्षालय आदि जैसे अभिनव प्रयास किये जाएँ जो मानव सेवा का अनुपम उधाहrण बने. क्या मानव सेवा ईश सेवा नहीं है? क्या ऐसा करने में हमारी धार्मिक आस्था प्रश्नों के कटघरे मै खड़ी हो जाती है? निश्चित ही यह प्रश्न विचारणीय है और यह तीखा सच भी है कि अब हमें नए धर्म मंदिरों कि नहीं अपितु कर्म मंदिरों कि ज़रुरत है!
सान्निध्य नानावटी
इंदौर